Tuesday, March 6, 2012

चोरी


खेल कई खेले,
थे दूसरो ने रचे ...

किताबे कई पढ़ी,
थी दूसरो ने गढ़ी ...

पाँव कई गाँव मे पड़े,
थे दूसरो ने ढूँढे ...

गीत कई गुनगुनाए,
थे दूसरो ने लिखे ...

फ़िल्मे कई देखी,
थी दूसरो ने बनाई...

रैलिओं मे कई बार दौड़ा,
था हुआ सीना दूसरो का चौड़ा ..

नारे कई लगाए,
थे किसी और के लिए बनाए ...

फल कई खाए,
थे बीज दूसरो ने बोए ...

उंगलिया खूब उठाई,
थी दूसरो पे साधी ...

कमियाँ खूब ढूंढी,
थी दूसरो मे लगी...

सुझाव कई सोचे,
थे दूसरो को दिए ...


सोचता हूँ ...

चोरी खूब किया...जो था दूसरो ने बनाया
मैने किया क्या - जीवन जिया क्या ?


Monday, March 5, 2012

सेक्टर पाँच


जंगल है
इमारतों से भरा..

कोई खिला रहा ...
तो कोई पिला रहा ...
कही ठेला है लगा... 
तो कही झमेला है हुआ... 

चलके आइए ...
चलाके ले जाइए ...
बैंक है ..या मारुति दुकान?
लोन है बँट रहा 


पेन लेके आइए ...
नौकरी लेके जाइए ..
कॉलेज है या प्रेस..?
डिग्रिया है छप रही 


हाउस है फुल ...
और है बाहर भीड़
'बिग' सिनेमा भी है छोटा पड़ा...

दिल जले हो ..या जुड़े
बार है 'ओपन' सबके लिए 


देश है आज़ाद..
नागरिक नही..
चमकते शीशों के पीछे 
एक जेल है खुली 
क्लाइंट के लिए ज़िंदगी
जहाँ क़ैद कर रखी...


झुंड है - चलते जा रहे..
किसी से ना कुछ लेना ..
ना कुछ किसी को देना ..
और रुकना है मना... 


उठ सवेरे हर रोज
भूल जाता हूँ खुदको..
चल देता हूँ... 
इसी जंगल की सैर पे..
हर शाम लौट आता हूँ..
शायद इसीलिए भूला नही कहलाता हूँ |