Friday, December 28, 2012

मुजरिम, जनता और सवाल


मुजरिम
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क़ैद है, सलाखों के पीछे
पिछले कुछ दशकों से |
गवाह थे, सबूत भी थे
समय के साथ, अब ना रहे

जनता
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इंसाफ़ की माँग कर रही है
पीढ़ी दर पीढ़ी, कचहरी के
चक्कर काटे जा रही है |


सवाल 
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क़ैद है कुछ ज़हन में,
बिल्कुल मुजरिमों की तरह
ज़ुबान तक आते है,
चक्कर काट के चले जाते है
बिल्कुल जनता की तरह |
जिनके पास जवाब थे
वो अब नही रहे ,
सबूतों-गवाहों की तरह |

Monday, December 24, 2012

सचिन तेंदुलकर

खेल वही होगा, मैदान भी वही होंगे
वही 22 गज़ की पट्टी के इर्द गिर्द
नये खिलाड़ी अपनी धाक जमाएँगे 
चौके - छक्के अभी भी लगेंगे 
शतक और भी कई लगेंगे 
रनों की बौछार अभी भी होगी 
कुछ नये रेकॉर्ड बनेंगें,  कुछ टूटेंगें


अगर कुछ नहीं होगा, तो 
10 नंबरी नीली जर्सी में
वो छोटा कद वाला,   
मैदान में वो कोरस गूँज |

नही उठेंगे, कुछ सवाल 
वो खेल रहा है ना अभी तक ?
उसने आज कितने रन बनाये ? 

और हाँ,
शायद उठ जाएगा लोगों का 
'क्रिकेट' धर्म से विश्‍वास |

Saturday, December 22, 2012

कवि - प्रकाशक


कवि महाशय,

ये जो विचार है, थोड़े सस्ते है
कुछ मोती-वोती सजाइए इनमें
तब जाके कुछ भाव लगेंगें
तब जाके किसी बाज़ार मे बिकेंगें |


प्रकाशक महोदय,

गुस्ताख़ी माफ़ करना
जिस बाज़ार में, आदमी बिकता है
उस बाज़ार में बिकने से भला
ये विचार मेरे ज़हन में ही अच्छे है |

Monday, December 17, 2012

परेशान

कुछ परेशान हूँ
उसने, जिसने अभी लिखना भी नही सीखा
उसका शोक संदेश कैसे लिखूं ?

जैसे तैसे लिख भी दूँ,
तो उन माँ-बाप के दिल का
हाल कैसे महसूस करूँ ?

दिल का हाल समझ भी लूँ
तो, दूसरे देश की छोड़, अपने की सोच
ऐसा बोलने वालो को क्या जवाब दूं ?

और अपने देश में,
किसी माँ की कोख से निकला,
किसी बहन का भाई
जब खुले आम बलात्कार करे,
तो उस लड़की को कैसे इंसानियत मे विश्वास दिलाऊं
और धरती पर पल रहे इन हैवानों को कैसे इंसान समझुँ ?

Wednesday, December 5, 2012

चिठ्ठी


सूखे से त्रस्त गाँव में
सभी आँखे टकटकी लगाए
टेंकर का इंतज़ार करती है

कि टेंकर आएगा
दो घूँट गले मे पानी उतरेगा
और दो शब्द मुँह से निकलेंगे

पर बाबा, आज भी गाँव मे
डाकिये की ताक में रहते है
जब भी आता है,
सूखे पड़े गले से ही पूछ लेते है

"अमरीका से कोई चिठ्ठी आई है ?"  
अब भला वो नही जानते
चिट्ठियों को थोड़े ना कोई
फ़ेसबुक पे शेयर कर सकते है |

Sunday, December 2, 2012

तलाश


हर सुबह नहा धो कर 
शहर से दूर, 
उँची इमारतों के जंगल में 
मुखौटे पहन के
झूठी मुस्कानें चढ़ाके
ना जाने कौन कौन 
भटकते रहते है वहाँ  

वो जंगल बड़ा लुभावना है 
शीशे लगे है इमारतों पे 
वातानुकूलित कमरे है

पर वहाँ बैठ के हर कोई,
फोन, पिंग, और मेल पे
सामने वाले का काटते है 

ना जाने किस तलाश में 
रोज़ खुदको ही खोते रहते है 
और, हर सुबह उठ, नहा धो कर 
शहर से दूर, इमारतों के जंगल में 
एक मौत वो मरते है |