Saturday, December 31, 2016

नया साल

कभी कभी सोचता हूँ, 
ये समय क्या है ?

क्या ये समंदर है
जो शायद भरा हुआ है इन
लम्हों रूपी छोटी छोटी बूँदो से...

लम्हें..
जो मिल जाए तो बना देते है 
रात और दिन, शाम-ओ-सहर

लम्हें..
जो मिल जाए तो बना देते है
हफ्ते, महीनें और मौसम...

लम्हें..
जो मिल जाए तो बना देते है
साल, सदी, और जुग...

पर इस समंदर का किनारा कहाँ है 
और इसके किनारे कौन बैठा है 
क्या कोई इसके किनारे पहुँचा भी है 

या फिर मैं, तुम, हम सब.. 
इस समंदर की लहरों में बहते जा रहे है

अगर ऐसा ही है तो फिर 
मैं भी वही हूँ
तुम भी वही हो
हम सब वही है 
ये समंदर भी वही है 
तो फिर ये साल नया कहाँ से आ रहा है ?


-अंकित कोचर