Thursday, October 25, 2012

अमर


माँ की कोख में था संसार
2 गज़ ज़मीन पे हुई विदाई
फिर भी ये सारी ज़िंदगी
ज़मीन तेरी-मेरी करने में बिताई


आके तो लंगोट ही पहना
और जाते हुआ नसीब कफ़न
बाकी बीच मे सारी ज़िंदगी
भरी अपनी 'जेब' मे कमाई


आया अकेला,जाएगा भी अकेले
कुछ हस्ती खुदको बना लेना
कि जाने के बाद ये दुनियाँ
'अमर' तुझको बनके रखे |

Wednesday, October 24, 2012

ये भी तो एक रिवाज है


कुछ रिवाज ऐसे पूरे होंगे  -

एक गंभीर वातावरण
आँखों में कुछ आँसू
शोक से मुरझे चेहरे
सीने में छुपा वो दर्द
एक अंतिम यात्रा
और कुछ श्रद्धांजलियाँ |


शरीर की ये जटिलताए
खाक मे है मिल जानी
अगले दिन से तुम्हे
कहाँ, मेरी याद है आनी ?
तस्वीरे हर और होंगी
सुना सुना भी लगेगा
आया है, तो जाना होगा
ये कहके आगे बढ़ना होगा |


ये भी तो एक रिवाज है
पूरा करता जिसे हर समाज है |

Sunday, October 21, 2012

तुम ही हो ना ?


घुप्प अंधेरो में भी
साया पीछा करता है

सन्नाटो में भी कभी
आवाज़े सुनाई देती है

आँखे जब बंद करता हूँ
रोशनी दिखाई देती है

लगे ऐसा छुआ किसी ने
हवा जब चलती है

ये साया, ये आवाज़े
ये रोशनी, ये हवाएँ -
ये तुम ही हो ना ?

Sunday, October 14, 2012

लक्कड़


एक लकीर खींच दी, आग और खून से
कर दिया बँटवारा, ज़मीन का, देश का

अपने ही घर से बेघर होके, चल तो दिए
वो उधर से इधर, और ये इधर से उधर

लेकिन मंज़िल पे शायद लाशें ही पहुँची थी
ट्रेने लदी थी, लाशों से, मानों लक्कड़ लदे हो

इन बातों को कई दशक बीत गये है,
लेकिन ज़ख़्म अभी भी भरे नही हैं

उस लकीर से आज भी खून बहता है
आग लगती है कहीं, धुआँ हर जगह उठता है |

Wednesday, October 10, 2012

वक़्त


दौड़ती ये ज़िंदगी है  
भागती ये ज़िंदगी है 

पैसे कमाने की दौड़ में
थकने का भी वक़्त नही 

वक़्त नहीं है मेरे पास
वक़्त नहीं है तेरे पास

मर रहा हूँ मैं इस पल
मर रहा मैं हर एक पल 

जाने कब हूँ जी रहा 
ज़िंदगी से मैं पूछ रहा

क्या करू मैं अब तेरा 
जीने का जब वक़्त नही ?