साँझ पड़े ढल जाता है ये,
पर हर सुबह उसी सूरज को उगते हुए देखता हूँ
आकार, रंग रूप बदलकर ही सही,
हर रात आकाश मे कमजोर चाँद को भी चमकते देखता हूँ...
पतझड़ मे पीले बनके झड़ तो जाते है ये,
पर फिर बसंत मे उन्ही पत्तो को उगते हुए देखता हूँ
हर मौसम अपना रंग दिखा के चला तो जाता है,
पर फिर उसी मौसम को लौटते हुए देखता हूँ...
उड़ जाते है, सुबह सुबह सब पंछी,
पर हर सांझ ढले उन्हे लौटते हुए देखता हूँ...
कुछ लोग छोड़ चले गये है,
इंतज़ार कर रहा हूँ.. शायद उन्हे भी लौटते हुए देखूं |
No comments:
Post a Comment